भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं ही हूँगा / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब-जब आकाश में सूर्य होगा
मैं भी हूँगा ।
धरती जब-जब रोशनी के पैमाने से
जीवन को नापेगी
मुझे ही नापेगी ।
 
पगडंडियों पर
पाँवों के लगातार बढ़ते चिह्न
मेरी ही यात्रा को लिखेंगे;
जब-जब रात अकेली बैठेगी
मेरी ही बात होगी;
साँसों के सारे संस्मरण मेरे ही होंगे;
धूप-खिली सुबह
या सुलगती साँझ
जब-जब अवतार लेगी
मेरा ही लेंगी ।
 
उँगलियों में पथरीला सन्नाटा सँभाले
जब-जब दोपहर होगी
मैं ही हूँगा ।
कवच और कुण्डल की चर्चा के बीच
जब कभी
जीवन का थका-हारा रथ उठाने में
भुजाएँ असमर्थ होंगी
वे मेरी ही गवाही देंगी;
जब-जब वे टूटेंगी
मेरा ही हठ टूटेगा;
जब कभी मणियों के द्वीप खुलेंगे
और लहरें फुँकारेंगी
सागर में डूबती-उतराती अस्थियों के उस पल में
मेरा ही संवाद होगा ।
 
जलती-बुझती चट्टानों पर
धैर्य की परीक्षा देतीं आस्थाएँ
मेरा ही नाम लेंगी -
मैं हर बार ऐसे ही उगूँगा -
डूबूँगा भी
जैसे रोज़ डूबता है 'आज' ।
मृत्यु की प्रतीक्षा कोई सौजन्य नहीं है मेरा -
ऐसा ही हर बार हुआ है
सभी के साथ -
वे समापन के क्षण भी मेरे ही थे ।
 
आहट पर चौंकने की बारी मेरी ही है
और अनाहूत बार-बार आने की बात भी
मेरी ही है ।