मैं हूँ पथिक अकेला / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
मेरा नाम अकेला
जिसका काम जुगाना केवल युग के लिए उजेला!
मेरा नाम दिवाना
काम यही भूले भटके को असली राह दिखाना!
मैं बेबस, बेगाना
एक लक्ष्य है ठोकर खाकर पथ पर बढ़ते जाना!
मैं ग़म का अफसाना
चाह रहा हूँ मिटकर भी मैं एक नया युग लाना!
मेरा नाम खेवैया
चला सदा लहरों के ऊपर खेता जीवन नैया!
राही मैं युगपथ का
थामे डोर चला करता हूँ अमर किरण के रथ का!
मैं हूँ शिव मतवाला
सुधा उगलकर पीता हूँ मैं विष का जलता प्याला!
है कोई मस्ताना
जो गाता हो इस मस्ती में महासृजन का गाना?
मैं वाणी का बेटा
सावन लिखता रहा ग्रीष्म की मरु ज्वाला में लेटा!
मैं मीरा का स्वामी
युग की सीता जिसके पीछे चले राम वनगामी!
मैं शंकर की चोटी
सदा भगीरथ की धरती पर मेरी गंगा लोटी!
साधक एक निराला
पहिनाता हूँ महतिमिर को किरणों की जयमाला!
एक अथक सन्यासी
लू लपटों में जीनेवाला एक श्रमिक अभ्यासी!
मैं तपस्वी एकाकी
अखिल विश्व के लिए रश्मियाँ जुटा रहा सुधा की!
मैं अल्हड़ आवारा
भटक भटक कर एक दिशा में अटक गया ध्रुवतारा!
काम नहीं है चोरी
छिपकर रोना यही एक है भावुक की कमजोरी!
मैं हूँ एक अकेला
मेरे चारों ओर लगा है अरमानों का मेला!
हूँ नवयुग की आशा
युग की पीड़ा हीं मेरे कोमल प्राणों की भाषा!
मैं सदियों का प्यासा
प्यास लिए मर जाना कवि के जीवन की परिभाषा!
बन फूलों का माली
सीने से चिपकाए बैठा हूँ काँटों की डाली!
मैं हूँ एक चितेरा
बना घोंसले ढूँढ रहा हूँ अपना रैन बसेरा!
जलना जीवन मेरा
मेरे जलने से पाती है धरती नया सवेरा!
मैं हूँ काव्य प्रणेता
कल इतिहास कहेगा जिसको सौ-सौ युग का नेता!
मैं विद्या का दाता
भाग्यहीन चल चुका सफ़र में चलते भाग्य विधाता!
हृदय रक्त का दानी
अमर साधना के पथ पर मैं चला मस्त बलिदानी!
मैं हूँ एक कहानी
जिसके शब्द-शब्द में संचित सागर लहर रवानी!
मुझमें भरी जवानी
देकर मैंने प्यार विरह की व्याकुलता पहिचानी!
मैं सतेज अभिमानी
सीना खोले खड़ा, बही है हवा हज़ार तूफानी!
कवि हूँ मैं अलबेला
अग्नि लहर से लिखी गई है मेरी जीवन बेला!
मैं हूँ पथिक अकेला
इसी विश्व के लिए करोडों काँटों का दुख झेला!
एक अनोखा राही
खड़ा हुआ हूँ सर्वोदय के पथ पर अमर सिपाही!
रह इतिहास गवाही
तब तक लिखना है जब तक रिस रही क़लम से स्याही
मैं बसंत की बोली
लिए खड़ा हूँ मैं विराट से केसर कुंकुम, रोली!
रोली वाली झोली
दिग दिगंत में व्याप्त रही है होली-होली होली!
करुणा मेरी दासी
तुलसी, सूर, कबीर और मैं मीरा का गृहवासी!
इच्छा मेरी प्यासी
बाँट रहा मुस्कान ज़माने भर की लिए उदासी!
करुणा मेरी गाथा
जिसके आगे झुका हुआ है प्रतिहिंसा का माथा!
विप्लव मेरी चाहें
एक व्यक्ति मैं बना रहा हूँ युग की सीधी राहें!
मैं हूँ अनल प्रलय का
लिखता केवल गीत, विश्व की महाशांति की जय का!
मन पूजा की वेदी
एक लक्ष्य से लाख पत्थरों की चट्टानें भेदी! आगे पाँव बढ़ाना
इसी चेतना से स्पंदित मेरा जीवन गाना!
मैं मंज़िल अभिमानी
हो जाए तन होम, मगर मंज़िल पाने की ठानी!
मैं कठोर व्रतधारी
'पी पी' सदा रटा करता हूँ निगल-निगल चिनगारी!
मंजिल मेरी सीमा
कभी नहीं हो सका आज तक चलने का क्रम धीमा!
राही हूँ रहबर भी
एक समान मुझे लगती है मधुऋतु भी पतझड़ भी!
मैं युग पथिक, पथी हूँ
किरण पथी दुर्जेय प्रात के रथ का किरण रथी हूँ
मैं संचित चिनगारी
यज्ञ अग्नि जल सके हवन की मेरी पहली बारी!
गायक हूँ समता का
नायक हूँ मैं मानवता की मर्यादा, ममता का!
मैं जागरण प्रभाती
लिए आरती, खड़ा हुआ मैं तम प्रदेश की बाती!
मुझको अलख जगाना
जीवन का अमृत उड़ेलकर मुझे जगत से जाना!
मैं सूली का ईसा
मैंने केवल अब तक अपने पथ का पत्थर पीसा!
युग का कवि निर्माता
फूट पड़ा हूँ चट्टानों से निर्झर धार बहाता!
मैं सुकरात अनोखा
'अहम् ब्रह्मास्मि' कहने में तनिक न मुझको धोखा!
ब्रह्मा मेरी रचना
खेल नहीं है किसी सृष्टि का दृष्टि वृष्टि से बचना!
कविता कवि की माया
अंधकार से ही बनती है कलाकार की छाया!
मैं हूँ शुद्ध पुजारी
मंदिर, मस्जिद नहीं मुझे तो मानवता है प्यारी!
मनुपुत्र हूँ गर्वीला
आज पाटना चाह रहा हूँ छल का ऊँचा टीला!
मैं हुँकार प्रलय का
प्राणों में गूँजा करता है मधु उद्घोष विजय का!
मैं कठोर सेनानी
भरा हुआ मेरी रग-रग में मनुष्यता का पानी!
लिखना अपना पेशा
इस अछोर पतझड़ मर्मर में कोकिल का संदेशा!
क्या न मुझी पर बीता?
यमुना तट पर हेर रही है मेरी राधा, सीता! वंशी की स्वर लहरी
घटा घिरा देगी, जलने को चीखे लाख दुपहरी!
नीलकंठ मतवाला
अधरों पर मुस्कान कंठ में संचित काला काला!
मेरा ताण्डव नर्तन
खुले तीसरा नेत्र; विश्व के अणु-अणु में परिवर्तन!
माटी मेरी काया
मगर इसी माटी पर मेरा वृंदावन लहराया! माटी का आभारी
अरे! इसी माटी पर लेता रूप सदा अवतारी! तन पर नहीं लंगोटी
मगर बिनोवा बाँट रहा है लक्ष-लक्ष को रोटी!
तलवारों की आँधी
रोक खड़ा है इसे वक्ष पर एक महात्मा गाँधी!
मैं शहीद की बोटी
कटकर जो भी नहीं हुई है इस दुनिया से छोटी!
नव प्रकाश की रेखा
कहाँ आज अवकाश किसी से करुँ ज्योति का लेखा?
मैं हूँ प्रलय प्रभंजन
जिसकी आँखों में रहता है भरा धूल का अंजन!
ज्वालामुख मन मेरा
पतझड़ की सूखी डाली पर मन का रैन बसेरा!
चलता पाँव बढ़ाए
ताकि पथिक के चरण चिह्न छू, दुनिया मंज़िल पाए!
मत कह मुझे गुमानी
कहीं ना ऐसा कहना ही कल हो जाए नादानी!
मैं तो एक भिखारी
मानवता के लिए चिता पर चढ़ने की तैयारी!
मेरी कठिन तपस्या
ठोकर खाकर ही हल होती मेरी करुण समस्या!
कवि हूँ बहुत अकेला
मुझे मान सम्मान नहीं दो, मैं ठुकराया ढेला! मैं हूँ पथिक अकेला
आगे पीछे लगा हुआ है दुनिया भर का रेला!