मैं हूँ बीच भँवर में, कोई तट पर जोह रहा है!
कैसे ऐसे प्रीति निबाहूँ,
कहूँ कहाँ, कैसे हूँ, क्या हूँ!
छूटे हुए तीर को मुझसे कितना छोह रहा है!
भरा हुआ ही डूब रहा हूँ,
पर अभाव से ऊब रहा हूँ,
तट का मोह छूट कर भी इस घट को मोह रहा है!
लहरो! तुम्हीं उसे समझाओ,
तट पर लिखकर भेद बताओ,
यह सागर-अवरोह वही, जो गिरि-आरोह रहा है!