भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं हूँ सैनिक की अर्धांगिनी / निधि सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हाँ भीगे तो रहते हैं पलकों के कोर
परन्तु प्रतीक्षा की अडूब झलकन नहीं ये
ये तो अभिमान की झिलमिलाहट है...

तुम आओगे तो नभ के तारों को
हम टकटकी बांध कर देखेंगे...

पौ फटते जो पहली किरण चुपचाप चली आती है
उससे बांध कर रख लूँगी तुम्हें मैं...

तुम्हारे साथ बीते पल
मन की तहों में सहेजे हैं
मोद से मुखरित परचों की तरह
बोध है मुझे इनकी अनिवार्यता का...

तुम यदि वीर हो तो वीरांगना मैं भी हूँ
अपनी विशिष्टता का अहसास है मुझे
तुमसे ब्याह जो किया है...