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मैं हूं, मैं हूं, मैं हूं / सुधा उपाध्याय

चौराहों से एक तरफ निकलती
संकरी गली में
स्थापित कर दी तुमने मेरी प्रतिमा
लोग भारी भारी होकर आते हैं मेरे पास
मुझे छू-छूकर दिलाते हैं विश्वास
कि मैं हूं
मैं हूं
मैं हूं
बस कभी हल्की नहीं होने पाती मैं
ताकती रहती हूं
चौराहे पर पसरी भीड़ को
उपेक्षित गली को
और सबसे ज्यादा
अपने ईर्द गिर्द लगी
लोहे की जालियों को
जहां अब भी ढेर सारा चढ़ावा रखा है