भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं हृदय की बात रे मन ! / जयशंकर प्रसाद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमुल कोलाहल कलह में
मैं ह्रदय की बात रे मन !

विकल होकर नित्य चंचल,
खोजती जब नींद के पल;
चेतना थक-सी रही तब,
मैं मलय की वात रे मन !

चिर विषाद विलीन मन की,
इस व्यथा के तिमिर वन की;
मैं उषा-सी ज्योति रेखा,
कुसुम विकसित प्राण रे मन !

जहाँ मरु ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती;
उन्हीं जीवन घाटियों की,
मैं सरस बरसात रे मन !

पवन की प्राचीर में रुक,
जला जीवन जी रहा झुक;
इस झुलसते विश्व-दिन की,
मैं कुसुम-ऋतु रात रे मन !

चिर निराशा नीरधर से,
प्रचिच्छायित अश्रु-सर में;
मधुप मुखर मरन्द मुकुलित,
मैं सजल जलजाल रे मन !