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मैं हृदय की बात रे मन ! / जयशंकर प्रसाद
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तुमुल कोलाहल कलह में
मैं ह्रदय की बात रे मन !
विकल होकर नित्य चंचल,
खोजती जब नींद के पल;
चेतना थक-सी रही तब,
मैं मलय की वात रे मन !
चिर विषाद विलीन मन की,
इस व्यथा के तिमिर वन की;
मैं उषा-सी ज्योति रेखा,
कुसुम विकसित प्राण रे मन !
जहाँ मरु ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती;
उन्हीं जीवन घाटियों की,
मैं सरस बरसात रे मन !
पवन की प्राचीर में रुक,
जला जीवन जी रहा झुक;
इस झुलसते विश्व-दिन की,
मैं कुसुम-ऋतु रात रे मन !
चिर निराशा नीरधर से,
प्रचिच्छायित अश्रु-सर में;
मधुप मुखर मरन्द मुकुलित,
मैं सजल जलजाल रे मन !