भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं (1) / कन्हैया लाल सेठिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोनी मनैं
म्हारै बारै में
कोई बैम !
मैं समंदर री
एक बूंद
गिगनार रो
एक तारो
माटी रो एक कण,
हो साव भोळंगो
म्हारो बचपण
निसफिकर हो
जोबन
अबै बुढापै में
कोनी चाहीजै
कोई विसेषण
मनै संतोष
मैं जियो
एक
साधारण जीवण
अबै मैं कोनी अडीकै मरण !