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मैं / अमरेन्द्र

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वही बात तो कहता हूँ मैं जो बिल्कुल ही सच है
इस वसन्त के फूल-फूल में मेरी हँसी लिखी है
इस साक्षी में शुक-पिक ही क्या, सम्मुख यहाँ शिखी है
मुझमें ही तो देवयानी है, मुझमें ही तो कच है ।

जब भी जेठ जलाता मुझको, मैं आषाढ़ बना हूँ
मेरे ही कारण है पुरबा-पछिया की गलबाँही
मेरा सुख ही कहीं धूप है, मेरा दुख ही छाँही
हिमप्रदेश में छाया रहता, ऐसा मेघ घना हूँ।

मेरी ही पीड़ा को लेकर सावन औला-बौला
मेरे मन की निर्मलता पर इतनी शरत सुहानी
सदियोें से रिश्ता हेमन्त से है जानी-पहचानी
पूस-माघ को मैंने अपने कोमल मन पर तौला।

जीवन जहाँ, वहीं पर मैं हूँ; मृत्यु जहाँ पर, मैं हूँ,
जहाँ दिखाए मिट्टी, पानी, आग, वहाँ पर मैं हूँ।