मैं / श्वेता सिंह
अभी-अभी बस ऐसे ही
खोजा मैंने ख़ुद निज को ही
हूँ अर्ध स्वप्न में खोयी सी
किंचित जागी, कुछ सोयी सी
क्या हूँ मैं? नित्या या क्षणिका??
वह क्या जो मुझको परिभाषित करता
क्या प्रश्नों में मेरा विस्तार
या उत्तर में होगा निस्तार
आयु की चढ़ती-ढलती में
कुछ परिवर्तन अवश्य हुआ
जो बदल गया, वह भी यथार्थ
जो ना बदला, वह सत्य मेरा
पलकों की झपकी हो जैसे,
कालखंड बीते वैसे,
जीवन की झांकी तो मैंने,
देखी बस स्मृतियों-स्वप्नों में
संघर्षों के झंझावत में
हार-जीत की सुध बिसरी
ना उन्माद विजय का संग रहा
ना टीस पराभव की ठहरी
इस जीवन की मधुशाला में
पीती भावों को मदिरा सी
सुख के मेले हैं अंतस में
और दुःख मेरी है आली सी
मैं हूँ केवल अनुभूति सी
पर हूँ चैतन्य प्रसूति भी
उजले पृष्ठों की पुस्तक सी
पूरी खाली पर बाक़ी भी
नौका मैं ही, मैं ही पतवार
खेवैया हूँ मैं, मैं ही सवार
किनारा भी मैं, मैं ही मझधार
इसपार भी मैं, मैं ही उसपार
दृश्य भी मैं, मैं ही द्रष्टा,
वक्तत्व मेरा, मैं ही वक्ता,
क्या और कहूँ अपना किस्सा
जो है, मैं हूँ उसका हिस्सा