भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैथिल भाइ / रघुनन्दन लाल
Kavita Kosh से
उठू मैथिल योग्य जन जे देशहित सर्वस्व छी,
सेवा करु निज देश केर, की व्यर्थमे कदराइ छी,
भय, शोच ओ संकोच सौँ अपनो देशोके नष्ट कै
घटिते गेलौँ, घटलौँ अहाँ दिन-दिन घटा पुरुषार्थकेँ।
हम के छलौँ ओ छी कतय एकरो कने देखू सबै,
सब भाँतिसँ अति नीच भय विद्या बिना भेलहुँ अबै।
की व्यर्थमे निज धर्महुकेँ त्यागि हम चौपट भेलहुँ,
हा हा! देखू, संकोच नहि? मर्यादा सौँ सबठाँ गेलहुँ।
औ भाइ! सब जागू अबहु, नहि बेर चूकल अछि एखन,
यदि तूर देने कानमे पड़ले रहब नाशे तखन।
सुतले रहब? सुतलहुँ कते, आबहु कने जागू अहाँ
उन्नति करु निज देश केर एहु दासकेँ सङ लै अहाँ।