मैदान की कहानी - 1 / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
उल्लू
खलिहान पहुँची पहली फ़सल
हेमन्त के खेत में
बरसता है शिशिर का जल।
अघ्राण नदी की साँस से
हिम हो रहे हैं
बाँस पत्ते-भरी घास, आकाश तारे
चाँद फेंकता है बर्फ़ीली फुहार
धान खेत-मैदान में
धुआँ-सा कुहासा।
घर गया खेतिहर,
उनींदी-सी धरती
पाता हूँ टेर-
जाने किसकी दो आँखों में नहीं है
नींद की ज़रा-सी भी साध।
हल्दी के पत्तों की भीड़ में,
शिशिर के पंख रगड़े-रगड़े,
पंख की दाया पर शाखा ओढ़े,
नींद की उनींदी तस्वीरें देख-देख कर
सलोने चाँद और मधुर तारों के साथ
जगती है अघ्राण रात में
वही अकेला पक्षी,
याद है आज भी-
उस दिन भी इसी तरह-फ़सल पहुँची थी खलिहान,
खेत-खेत में झर रहे थे उसी शिशिर के स्वर,
कार्तिक की अघ्राण, रात में दूसरे पहर,
हल्दी के पत्तों की आड़ में बैठकर,
शिशिर में पंख रगड़े-रगड़े,
पंख पर शाखा की छाया ओढ़े
नींद की उनींदी तस्वीरें देखते हुए,
सलोने चाँद और प्यारे तारों के साथ
जागा था यही पक्षी अगंध रात में।
नदी में साँस से
वे रातें भी हो जाती हैं सर्द
बाँस पत्ते-हरी घास-आकाश के तारे,
बर्फ़-सी फुहार फेंकता चाँद,
धान खेत मैदान में
जमा धुआँ-सा कुहासा,
घर गया खेतिहर
उनींदी पृथ्वी में
मैंने पाया संकेत
जाने किसकी दो आँखों में नहीं थी
नींद की ज़रा-सी भी कोई साध।