भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैदान में / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैदान में
अकुंठित खड़ा
नीम का
निर्भ्रांत गोलवा पेड़
वनस्पतीय बोध से
चहचहाता है
पत्तियाँ लहराता है
झूम-झूम जाने को
गाने को बुलाता है
जीने की लालसा जगाता
और बलि बलि जाता है।

रचनाकाल: २२-०९-१९९१