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मैना का खोया जाना / प्रेम प्रगास / धरनीदास

चौपाई:-

आनन्दित चल राजकुमारा। संग न पींजरा दीख पियारा।
जेहिते ढूँढहिं सो नहि कहही। एक एक सन पूछन चहही॥
पूछहि सबहिं जहां लागे सारथ। पायउ नहिं पंखी परमारथ॥
सबहि कहें हम जानहि नाहीं। को ले गयउ रहयो केहि पाहीं॥
एक जना तब कीन्ह पुकारी। सुनो सबन मिलि वात हमारी॥

विश्राम:-

दूवो दल जब एक भौ, रजनी महा अंध महान्॥
मैना तबहिं विछोह भो, सत्य वचन परमान॥76॥

चौपाई:-

इतना सुनत कुँअर मुर्झाना। ढील भयउ सब ज्ञान भुलाना।
कम्पित अंग जंघ थहरानी। नयनन अति झरि लाओ पानी॥
वचन न आव मनै मन गुनई। आन कहल श्रवनन नहि सुनई॥
धरी एक मंह तावरि आई। लरखराय मुंह परु मुरुछाई॥
देखत सबके चल्यो पराना। यह कस चरित कीन भगवाना॥

विश्राम:-

रोय सबै मिलि धावहीं, व्याकुल करहिं पुकार।
ढूंढहि वेद गुनी जन, मूर्छित राजकुमार॥77॥

चौपाई:-

तत छन जन परिजन सब धाये। अति शीतल निर्मल जल लाये॥
सींचहिं कुंअरहि मलय चढावहिं। चहुं दिशि पंखा पवन डोलावहि॥
धोवहिं वदन नयन उर अन्तर। टोवहिं कर पगु नासा को सर॥
दुइ दिन कुंअरहि यही प्रकारा। करहिं अनेक यतन उपचारा॥
सब मिलि सुमिरन किहु कर्त्तारा। दीन दयालु दया अनुसारा॥
सपन कुंअर जनु पंखी पायउ। तेहि क्षण प्राण पलटि घर आयउ॥

विश्राम:-

परमारथ परमारथी, शब्द तासु मुख आव।
जिन जिन सुना सो हर्षित, मनहुं कृपण धन पाव॥78॥

चौपाई:-

जबहीं कुंअर वचन परकासा। उघरे नयन श्रवन अरु नासा॥
बैठ कुंअर तब देह संभारी। कम्पत अंग परे धुमरारी॥
वहुरि कुंअर कंह पूछन लागे। वीर, कहो रणधीर, सुभागे॥
कहा भई यह अपन अवस्था। जान चहन हम वात व्यवस्था॥
कह मनमोहन सुनुरे भाई। मोहि कछु वचन वकति नहि जाई॥

विश्राम:-

प्राण मोर परमारथी, राख्यों पिंजरा लाय।
काल घरी नियरानि जल, लेगा दूत दुराय॥79॥

चौपाई:-

लागे सब मिलि कुँअर वुझावन। बहुत प्रकार चिताय चितावन॥
तुमते अहै कवन शुर ज्ञानी। जो तुमकैह वुधि देय सुजानी॥
केहि पंखी हित अस जिय ठाना। कहहु सहस मंहावहुं आना॥
जाके विधना अति सुख दीना। काह शोच यह पंखी लीना॥
लाज कान कुल बात विसारा। मैना कारण विकल कुमारा॥

विश्राम:-

लाज कान कुल चहतहू, ओ हम सबहिं चेताय।
चलहु जहां मन मानसा, जो यदुपति ले जाय॥80॥

चौपाई:-

कुँअर मनहि मन कीन्ह विचारा। माँझधार को खेवनिहारा॥
आगे जाय कहा अब करऊं। पाछे जात लाजि गडि मरऊँ॥
इहां रहे नहि स्वारथ होई। प्राण दिये भल वोलन कोई॥
काह करों कित जाऊं कि रहऊं। भवन मरे चित चिन्ता रहऊं॥
वहुरि कुंअर अमिअंतर कहई। विधि पलटे जो सुकिरित रहई॥

विश्राम:-

योगी ह्वे जग में रह, जगजीवन लो जाय।
दीन दयाल दया करे, वहुरि मिले सो आय॥81॥

चौपाई:-

वोले कुंअर सुनो रे भाई। आगुपाछ मोहि जाय न जाई॥
अब मैं प्रेम गुदरी सीओं। करों योग जग जों लगि जीओं॥
चित्रसेन तब कह समुझाई। समुझि कहो अपने चित राई॥
राजा के तुम एके पूत। तुम विनु क्षण मंह क्षार वहूता॥
जे दिन तुम घर छोड़े भयऊ। युग सम मातु पिता कैह गयऊ॥

विश्राम:-

राजारानी परिजनहिं, ओं जत देश देशार।
कुँअर ओट दृग होवते, सब जग में अंधियार॥82॥

चौपाई:-

कुँअर पियो रस प्रेम पियाला। एको शीख श्रवन नहिं घाला॥
मो मन भां वैराग वियोग। फारि न चन्द्र सकै सब लोगू॥
जो जंहवा विधि धरो बनाई। तेहि कर कवन करे चतुराई॥
अलंकार सब धरयो उतारी। कन्था कियो पटंवर फारी॥
अंगहिं अंग विभूति चढाई। योगरूप अनुरूप बनाई॥

विश्राम:-

हाथी घोड़ा रतन रथ, औ जत सैन भंडार।
मनमोहन कहवे लगो, लेवे जो जेहि पार॥83॥

चौपाई:-

हाथिन संगिन से अस कहेऊ। अत दिन साथ हमारे रहेऊ॥
लक्ष्मी अर्थ द्रव्य जत चाहौ। घर ले जाहु पंथ निवाहो॥
नृप रानिहिं परनाम सुनायहु॥...
विधि को लिखा होय नहिं आना। करे कोऊ जग कोटि विधाना॥
सुनरन नाग अवर जत देऊ। कोह कोह जाने अक्षर भेऊ॥

विश्राम:-

दीन्हो अत वडवल विधी, तेहि आखर केह लाय।
तीनिभुवन मिलि जा लगै, मेटत मेटि न जाय॥84॥