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मैला दर्पण / मालचंद तिवाड़ी
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चेचक नहीं निकला करती
दर्पण के मुखडे पर
सिर्फ इतना हुआ था
कंघी करते समय
तुम्हारी गीली केश-राशि से उडे छींटे
पौंछ नहीं सका था मैं
यत्न करता-सा
कि इस जाली के नीचे
जस का तस मिल जाएगा तुम्हारा रूप
पडा हुआ दर्पण के अंतस में
वह मेरी भोली आशा
अब पौंछ दिया करती है
बिम्ब-प्रतिबिम्ब के कितने ही रिश्ते
क्योंकि कृतघ्न नहीं थी वह मेरी आँख
जिसने देखा था तुम्हें
देखते उस दर्पण को
निकालते समय अपने गीले केश
निथारने पर जल
सरोवर-सरोवर मिलता है चाँद
मैं खडा हूं अपने सरोवर के तीर
लिए हाथों में अपने
वही मैला दर्पण अपना
अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा