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मैली हो गई धूप / शशि पाधा
Kavita Kosh से
पथ में छाया धूम गुबार
कोहरे में डूबा संसार ,
अम्बर से धरती तक आते
मैली हो गई धूप ।
फीकी पड़ गई सोनल चुनरी
धूमिल सा सब हार शृंगार ,
किरणों की डोरी को थामे
ढूँढ़े हरित तरू की डार ,
दिशा- दिशा कोलाहल शोर
बहरी हो गई धूप ।
नदिया की लहरों का दर्पण
अंग -अंग निहारा जिसने ,
सागर संग अठखेली करती
कण-कण रूप संवारा जिसने ,
देख के अब धुंधली परछाईं
सांवली हो गई धूप ।
पिघले पर्वत , निर्जन उपवन
दूषित वायु , पंकिल ताल ,
व्याकुल पंछी कैसे तोड़ें
घुटी-घुटी साँसों का जाल ,
धरती का दुख नयनों में भर
गीली हो गई धूप ।