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मै हूँ वह संसार वृक्ष / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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मैं हूँ वृक्ष परम चेतन
व्यापक प्रतीक जीवन का,
एक घटक हूँ प्रमुख
धरा पर जीवन के उपवन का

धरती के जीवन्त हमीं से
प्राणवायु पाती है,
पाती-पाती कालकूट
वसुधा का पी जाती है।

मैं हूँ वह संसार वृक्ष,
माधव ने जिसको गाया
रोम-रोम में मेरे बसकर
पावन मुझे बनाया।

शाखाएँ हैं द्वीप, देश
पत्ते हैं नगर गाँव से
शुष्क काष्ठ स्थल
यत्र-तत्र लगते अभिशप्त ठाँव से।

ग्रहण त्याग दोनों का क्रम
अविराम चला करता है,
इसीलिए वसुधा पर
जीवन-दीप जला करता है।

देकर निज सर्वस्व
न कुछ भी पाने की इच्छा है
रहते हुए लोकहित में
मिट जाने की इच्छा है।

शाखाओं पर बैठ कोयलें
मौन जगा जाती है,
कलियाँ नहीं चटकतीं
मानो आग लगा जाती है।

पतझारों से तृस्त जिन्दगी
फिर से हरियाती है
कली-कली स्वागत में
ऋतुपति के फिर खिल जाती है।

उठती सोंधी गन्ध धरा से
भीनी-सी कलियों से,
फलों की मधुगन्ध मेल
वरने लगती अलियों से।

सजकर और सँवरकर
मेरा जीवन जग उठता है,
राग वसन्ती मेरे उर में
सहज उमग उठता है।

अपनी छटा इन्द्रधनुषी
तितली के दल विखराते,
फूल और कलियों का
चुम्बन करते, रास रचाते।

सबको प्रिय लगता है
अपना सजा धजा घर-आगन,
आज वसन्ती वेला में
मेरा भी है प्रसन्न मन।

झूम-झूम उठती है
मेरी कोमल पाती-पाती,
रूप-रग-रस से आपूरित
थिरक रही मदमाती।

आया है वसन्त मेरे घर
नूतन साज सजाये,
रंगों के डेरे
गन्धों के मेले खूब लगाये।

खिले हुए बेला, गुलाब,
चम्पा, कचनार, चमेली,
अरूणारे कुब्जक कुन्जों में
अलियों की अठखोली।

गेख देखकर पतझारों के
त्रास भूल जाता हूँ
अंधड़ आतप और
दहकती भूल धूल जाता हूँ

मैं निर्वसन रहा कितने दिन
कैसे बतला पाउँ?
अच्छा होगा हाय!
दुर्दिनों की कथा मैं गाऊँ।

सुमनान्जलियों भरे लताएँ
हर पल झूम रही है,
बार-बार धरती माँ के
चरणों को चूम रही है।

गंधों का संचरण
प्राण तक मेरे भी आता है,
मौन आन्दोलन-सा उर मे
मधुर छेड़ जाता है।

जड़ होकर जब मैं
गन्धों का भाव ग्रहण करता हूँ,
कलियों का रस रंग
भ्रमर का राग श्रवण करता हूँ।

तो फिर जीव हृदय की
हलचल कौन भला कह पाये?
मधुर भावना के सागर
की थाह किस तरह पाये?

दिशाहीन कामना
अहर्निश जहाँ बहा करती है,
यद्यपि पग-पग चूर-चूर हो
नित्य ढहा करती है।

नहीं ठहरती है फिर भी
अटकाती मटकाती है,
गंगाजल से पावन मन
को रहती भटकाती है।

क्षणिक वसन्ती रंगो के
प्रति मोह जगा देती है,
और अचानक मन मंिन्दर
से शान्ति चुरा लेती है।

मूर्ख बना देती है क्षण में
धरती के ज्ञानी को,
कर देती है नष्ट
कामना, जीवन के पानी को।

फूले हुए नये फूलों-सा
क्षणभर फूल गया था,
मैं तो वसन्त के मद में
सब कुछ भूल गया था।

भूल गया खुद को भी खुद में
मधुरस की भाषा में,
अछर रूप छोड़कर भटका
रंगो की भाषा में।

किन्तु क्या करूँ, रूप, रंग
रस, गंध शक्तिशाली है,
भरी हुई सौन्दर्य सुधा
की छलक रही प्याली है।

संयम के सोपान
जहाँ क्षणभर में ढ़ह जाते है,
बडे-बडे तपशिखर
हाय! सिकता से बह जाते है।

माटी का क्षृंगार
सहज सबका मन हर लेता है,
नहीं धरा ही अम्बर को
भी बस में कर लेता है।

धन्य धन्य माटी की
म्हिमा बोलो कौन बखाने?
जसने पे्रम किया माटी से
वह ही इसको जाने।

मैं स्वदेश की पावन
माटी का वन्दन करता हूँ
पुष्पांजलियां भेंट
नित्य ही अभिनन्दन करता हूँ।