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मॉडर्न / शशि सहगल
Kavita Kosh से
कालिदास के यक्ष ने
भेजा था संदेसा
अपनी यक्षिणी को
बादलों के पन्नों पर
किए थे हस्ताक्षर
अपनी विरहाकुल आँखों से।
अब क्यों नहीं ले जाते संदेसा
आते-जाते बादल
मन की तरह उमड़-घुमड़
आस-पास ही बरस
फ़र्ज़ पूरा हुआ सोच
उड़ जाते हैं कहीं और।
आज
कौन ढोता है जल-भार
औरों को शीतल करने के लिए।