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मोक्ष / इंदिरा शर्मा
Kavita Kosh से
दुनिया पकड़ना चाहती है
आँचल तुम्हारा ,
चाहती है बुद्ध बनना |
काषाय वस्त्र , भिक्षा पात्र , भिक्षुक संघ
महाप्रस्थान और निर्वाण :
यह महावृत जीवन तुम्हारा |
छोड़ने होंगे यहीं राजसी वेश ,
कर्तन किए केश ,
ये राज मुकुट – मणियाँ नहीं शेष |
यह प्रकृति परिवेश –
तुममें हिम्मत नहीं थी शेष ,
अंतिम बार , बस अंतिम बार
देख आऊँ ,
निद्रा मग्न प्रकोष्ठ |
शांत निर्विकार ,
शयन कक्ष , गोपा निद्रा – मग्न
हृदय का द्वार ,
अंत में मोह का त्याग ,
अब न बचा कुछ शेष |
छोड़ सकोगे घर
रात्रि की निस्तब्ध वेला में
शून्य बन जाने को – शून्य हो जाने को |
प्रबल मोह क्या रोक न लेगा तुम्हे ?
बाहर तैयार खड़ा है रथ ,
प्रतीक्षा रत ,
तुम्हे ले जाने को
मोक्ष पाने को |