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मोक्ष / कृष्ण कुमार यादव
Kavita Kosh से
सागर के किनारे वह सीप
अनजानी सी पड़ी है
ठीक वैसे ही
जैसे शापित अहिल्या
पत्थर बनकर पड़ी थी
एक नन्हीं सी बूँद
पड़ती है उस सीप पर
और वह जगमगा उठती है
मोती बनकर
ठीक वैसे ही, जैसे शापित अहिल्या
प्रभु राम के पाँव पड़ते ही
सजीव हो जगमगा उठी थी
यही मोक्ष है उसका
पर वाह रे मानव
वह हर सीप में मोती खोजता है
हर पत्थर को प्रभु मान पूजता है
पर वह नहीं जानता
मोक्ष पाना इतना आसान नहीं
नहीं मिलता मोक्ष बाहर ढूँढने से
मोक्ष तो अन्तरात्मा में है
बस जरूरत है उसे एक बूँद की
ताकि वह जगमगा उठे।