सुनते हो ऐ अली के मुहिब्बाने<ref>प्रेम करने वाले</ref> दोस्त दार<ref>मित्रगण</ref>।
एक मोजिजा<ref>चमत्कार</ref> मैं कहता हूं उस शह<ref>शाह</ref> का आश्कार<ref>जाहिर</ref>।
है ताज़ा वारदात<ref>हादसा, घटना</ref> यह अज़<ref>नक़्ल से</ref> रोज़गार।
था कोई शख़्स दौलतो हश्मत<ref>बुजुर्गी, खिदमतदार लोग</ref> में नामदार।
इक रोज़ वह गया था कहीं खेलने शिकार॥1॥
जिस दश्त<ref>बियावान, जंगल</ref> में शिकार को गुज़रा था वह ग़नी<ref>मालदार</ref>।
बां एक शेर रहता था और उसकी शेरनी।
था एक चश्मा पानी का<ref>झरना</ref> और सब्ज़ थी बनी<ref>जंगल</ref>।
दो बच्चे उस बनी में थी वह शेरनी जनी<ref>पैदा किए हुए</ref>।
दस बीस रोज़ के थे अभी तिफ़ले शीर ख्वार<ref>दूध पीने वाले</ref>॥2॥
बच्चों को अपनी छाती पर रक्खे वह बे जुवां<ref>जो जुबान से कुछ कह न पाए</ref>।
दोनों को बैठी दूध पिलाती थी शादमां<ref>ख़ुश</ref>।
बन्दूक की जो आई सदा इसमें नागहां<ref>यकायक</ref>।
नर मादा दोनों भाग गए होके नीम ज़ां<ref>आधी जान, अधमरे</ref>।
बच्चे अकेले रह गए जंगल में बेक़रार<ref>बेचैन</ref>॥3॥
अलक़िस्सा<ref>मतलब यह कि</ref> जब शिकार से फ़ारिग़<ref>फुरसत में आना</ref> हुआ वह शाह<ref>बादशाह</ref>।
नागाह<ref>अचानक</ref> दोनों बच्चों पै उसकी पड़ी निगाह।
रखवाके उनको ऊंट पे जल्दी से ख्वामख़्वाह<ref>बे मतलब, अकारण</ref>।
ली उस शिकार गाह<ref>शिकार खेलने की जगह</ref> से फिर अपने घर की राह।
महलों में अपने आन के उसने लिया क़रार॥4॥
जब आये शेरो शेरनी बा हालते तबाह<ref>बुरी हालत</ref>।
और दोनों बच्चे घर में न आये उन्हें निगाह।
वह शेर खाके ग़श<ref>बेहोश</ref> गिरा इक बार करके आह।
और शेरनी ने लीं नजफ़ अशरफ़<ref>हज़रत अली के शहर जहाँ उनका मज़ार भी मानते हैं</ref> की यूंहीं राह<ref>रास्ता</ref>।
सर पीटती चली वह बयाबा<ref>जंगल</ref> से सोगवार<ref>दुःखी</ref>॥5॥
अलक़िस्सा कितने रोज़ में वह शेरनी ग़रीब।
भूकी प्यासी फेरती होटों पे ख़ुश्क जीब।
शौहर से छूटी और हुई बच्चों से बे नसीब<ref>अभागिन</ref>।
आ पहुंची यक बयक<ref>अचानक</ref> नजफ़ अशरफ़ के अन क़रीब<ref>पास</ref>।
पंजों से अपने सर पे उड़ाती हुई गु़बार॥6॥
बाजार में नजफ़ के जब आई वह नीम जां।
हर एक दुकां से बां की उठा शोर और फु़गां<ref>चीख पुकार</ref>॥
कोई पुकारा दौड़ियो कोई पुकारा हां।
हैबत<ref>डर</ref> से उसकी छुपने लगे पीर<ref>बूढ़े</ref> और जवां<ref>नौजवान</ref>।
चारों तरफ़ से धूम मची आके एक बार॥7॥
वह तो किसी तरफ़ को न घुड़की बताती थी।
ने मुंह को मोड़ती थी न पंजा उठाती थी॥
आंखों से उस हुजूम<ref>भीड़</ref> में आंसू बहाती थी।
शाहे नज़फ के रौजे<ref>कब्र पर</ref> पे फ़र्यादी<ref>पुकार करने वाली</ref> जाती थी॥
लोग इस पर अपने ख़ौफ़ से कहते थे मार-मार॥8॥
जिस दम वह पहुंची हैदरे सफ़दर<ref>फौज की कतार को फाड़ने वाला</ref> के दर<ref>चौखट</ref> तलक।
दरबान उसके ख़ौफ़ से यक्सर<ref>यकायक</ref> गये सरक<ref>हट गए</ref>॥
दाखिल हुई वह रौज़ऐ अनवर<ref>बहुत चमकदार</ref> में यक बयक।
रोने लगी वह सामने सर को पटक-पटक॥
आंसू की दोनों आंखों से बहने लगी क़तार॥9॥
आंखों से उसके आंसू की नद्दी जो बहती थी।
बच्चों का दाग़<ref>दुख</ref> अपने कलेजे पे सहती थी।
कुछ मुंह से शोर करती थी कुछ देख रहती थी।
गोया<ref>जैसे, मानों</ref> वह शह से अपनी जुबां में यह कहती थी।
बच्चे मेरे दिलाइये या शेरे किर्दगार<ref>खुदा के शेर</ref>॥10॥
रोती थी यूं वह शेरनी, आंसू बहा-बहा
मज़लूम<ref>जिस पर जुल्म किया गया हो</ref> जैसे रोवे है आदिल<ref>इंसाफ करने वाला</ref> के पास आ
और कुछ जुबां से अपनी सुनाती थी बग़बग़ा<ref>अचानक, सहसा</ref>
निकले थी आग़ा-आग़ा<ref>मालिक-मालिक</ref> की मुंह उसके से सदा<ref>आवाज</ref>
कह आग़ा-आग़ा<ref>मालिक-मालिक</ref> दर्द से रोती थी ज़ार-ज़ार<ref>फूट-फूट कर अत्यधिक</ref>
फ़र्यादी<ref>दुहाई देने वाला</ref> बन के साक़िये कौसर<ref>हजरत अली</ref> के सामने।
मोहताज<ref>जो कुछ न कर सकता हो</ref> बनके साहिबे कु़म्बर<ref>हज़रत अली का गुलाम</ref> के सामने।
यूं देखती थी मौजए अनवर<ref>चमकदार</ref> के सामने।
मज़्लूम<ref>जिस पर अत्याचार किया गया हो</ref> जैसे आन के दावर<ref>हाकिम</ref> के सामने।
करता है उसके हुक्म का रह-रह के इन्तज़ार॥12॥
लोगांे के दिल में जब तो हुआ ख़ौफ़ इसका कम।
सब इसके पास आन के देखें थे इसका ग़म।
हर आन<ref>प्रत्येक क्षण</ref> अपने सर को पटक करके चश्मे नम<ref>रोकर</ref>।
पंजों को इस तरह वह उठाती थी दम बदम।
फ़र्यादी दाद<ref>इंसाफ</ref> माँगे है जूं हाथ को पसार॥13॥
फ़र्याद वह तो मांगे थी आक़ा से झूम झूम।
यानी फ़लक<ref>आकाश, भाग्य</ref> ने मुझको दिखाया वह रोजे शूम<ref>मनहूस, बुरा दिन</ref>।
इस बात से तमाम नजफ़ में पड़ी यह धूम।
गिर्द<ref>आस पास</ref> उसके मर्दोजन<ref>स्त्री-पुरुष</ref> का हुआ आन के हुजूम<ref>भीड़</ref>।
हैरत में थे तमाम चैह<ref>चाहे</ref> नादां चैह होशियार॥14॥
कोई पानी उसके वास्ते कोई खाना लाता था।
लेकिन उसे तो रोने सिवा कुछ न भाता था।
बच्चों का दाग होश सब उसके उड़ाता था।
जो उसको देखता था उसे रोना आता था।
ऐसी तरह से सर को पटकती थी बार-बार॥15॥
वाँ तीन दिन वह शेरनी भूकी पड़ी रही।
नाचार<ref>जो कुछ न कर सके</ref> उन शरीफों ने देख उसकी बेकली।
जिस तरह वां क़दीम<ref>पुराना</ref> से कहने की राह थी।
उस तरह से जनाबे मुक़्द्दस<ref>पवित्र</ref> में अज़ की।
बा सीनऐ अलम कशो<ref>गम उठाने वाले सीने</ref> बा चश्मे अश्क बार<ref>आंसू बरसाने वाली आंखों के साथ</ref>॥16॥
आई निदा<ref>पुकारना, आवाज़ करना</ref> यह शेरनी देती दुहाई है।
एक शख़्स के यह जुल्मो सितम की सताई है।
बच्चों ने इसके कै़द की आफ़त जो पाई है।
सो अब हमारे रौजे़ पे फ़र्यादी आई है।
कल इसका भेद होवेगा तुम सब पे आश्कार॥17॥
यां तो शरीफ़ को यह इनायत हुआ जवाब<ref>उत्तर</ref>।
वां जा पलंग उलट दिया उसका बऐनेख़्वाब<ref>स्वप्न में</ref>।
फ़रमाया वह जो शेर के बच्चे हैं दिल कबाब<ref>कबाब जैसे जले हुए दिल वाले</ref>।
भिजवादे उनको शहर नजफ़ में तू कल शिताब<ref>जल्दी</ref>।
वर्ना तू इस गुनाह से बहुत होगा शर्मसार॥18॥
मां उनकी उनके वास्ते आंसू बहाती है।
और तीन दिन हुए हैं न पीती न खाती है।
फ़र्यादी होके रोती है और गु़ल<ref>शोर</ref> मचाती है।
ग़श<ref>बेहोश</ref> हो हमारे रौजे में जी को खपाती है।
जल्दी से उनको भेज दे, कर ऊंट पर सवार॥19॥
वह थर थरा के कांप उठा होके उज्र ख़्वाह।
जाना यह उसने यह है शहंशाहे दी पनाह।
बोला नजफ़ तो पन्द्रह दिन की है यां से राह।
भिजवा दूं किस तरह से उन्हें कल मैं पुर गुनाह<ref>गुनाहगार</ref>।
इतना तो इस गुलाम में कब है गा इख़्तियार<ref>अधिकार</ref>॥20॥
तब हुक्म यह हुआ उसे जिस वक़्त हो सहर<ref>सुबह</ref>।
जल्दी से दोनों बच्चों को रखवाके ऊंट पर।
भिजवादे अपने शहरकी आबादी से उधर।
जब पहुंचेगे यह शहर के दरवाजे के ऊपर।
बां पैदा होगा गै़ब<ref>परोक्ष</ref> से एक नाक़्ऐ सवार<ref>ऊंटनी सवार</ref>॥21॥
होते ही सुबह उसने मंगा कर वह दो बच्चे।
रखवाके एक ऊंट पे जल्दी रवाँ किये।
जब लोग आये शहर के दरवाजे के कने<ref>पास</ref>।
क्या देखें एक शख़्स को वां आधी रात से।
है मुन्तज़िर<ref>इंतजार करने वाला</ref> वह ऊंट की पकड़े हुए महार<ref>नकेल</ref>॥22॥
जाते ही दोनों बच्चे उन्होंने उसे दिये।
बा एहतियात<ref>ठीक तरह</ref> सौंप के फिर शहर को फिरे।
वह उन बच्चों को ले के चला इस शिताब<ref>जल्दी</ref> से।
आ पहुंचा उस मकान में एक पहर दिन चढ़े।
यकबार उसका शहर नजफ़ में हुआ गुज़ार॥23॥
बच्चों के आने आने के जब गुल हुए कडोड़।
वह शेरनी भी तकने लगी अपने मुंह को मोड़।
जब लाके उसके सामने बच्चे दिये वह छोड़।
यू खु़श हो चाटने लगी उल्फ़त से वह झंझोड़।
इंसान जैसे करता है बच्चों को अपने प्यार॥24॥
बच्चे भी दौड़ मां के गले से लिपट गए।
यूं जैसे कोई दूर का बिछड़ा हुआ मिले।
छाती पे लोट लोट के जा दूध से लगे।
उस शेरनी के जैसे कलेजे में दाग थे।
वैसे ही उसके मुंह पे ख़ुशी की हुई बहार॥25॥
जब उसने बच्चे पाये तो होकर वह शादमां।
बच्चों समेत उठके वह हैवान<ref>जानवर</ref> बे जुबां<ref>जो कुछ कह न सके</ref>।
रौजे़ के सात बार तसद्दुक<ref>न्योछावर करना, सदके करना</ref> हुई वहां।
फिर आस्ताना<ref>चौखट</ref> चूम हुई वां से बहरवां।
जा पहुंची अपने दश्त<ref>जंगल</ref> में ख़ुश होके एक बार॥26॥
शेरे<ref>खुदा के शेर हज़रत अली</ref> खुदा के अद्ल<ref>इंसाफ</ref> की यह देख रस्मो<ref>कायदा कानून</ref> राह।
ख़लक़त<ref>लोग, जन समूह</ref> तमाम वां की पुकारी यह वाह वाह।
इंसाफ ऐसा चाहिए ऐ शाहे दीं पनाह<ref>दीन का बचाव करने वाला</ref>।
हामियो<ref>तरफ़दार</ref> मुन्सिफ़<ref>इंसाफ करने वाला</ref> और नहीं कोई तुम सा शाह।
है ख़त्म तुम पे अद्लो हिमायत<ref>तरफ़दारी</ref> का कारोबार॥27॥
हैवां तुम्हारे लुत्फ़ से जिस वक़्त होवें शाद<ref>प्रसन्न</ref>।
इंसान फिर यहां से फिरें क्यूंकि नामुराद<ref>जिसकी इच्छा पूरी न हो</ref>।
जैसे तुम्हारे दर<ref>दरबाजा</ref> से मिली शेरनी को दाद<ref>इंसाफ</ref>।
एहसान ऐसे ऐसे बहुत ऐ करम निहाद<ref>दान देने की आदत</ref>।
हैंगे तुम्हारे सफ़हऐ आलम<ref>दुनियां</ref> में यादगार॥28॥
ऐ शाह यह ‘नज़ीर’ तुम्हारा गुलाम है।
रखता सिवा तुम्हारे किसी से न काम है।
आसी<ref>गुनहगार, पापी, मुजरिम</ref> है पुर गुनाह<ref>पापों से भरा हुआ</ref> है और ना तमाम है।
दिन रात उसका आपसे अब यह कलाम है।
रख लीजो मेरी आबरू या शेरे किर्दगार<ref>खुदा के शेर, हज़रत अली</ref>॥29॥