मोड़ कर अपने अंदर की दुनिया से मुँह / राजेश रेड्डी
मोड़ कर अपने अन्दर की दुनिया से मुँह, हम भी दुनिया-ए-फ़ानी के हो जाएँ क्या ।
जान कर भी कि ये सब हक़ीक़त नहीं, झूटी-मूटी कहानी के हो जाएँ क्या ।
कब तलक बैठे दरिया किनारे यूँ ही, फ़िक्र दरिया के बारे में करते रहें,
डाल कर अपनी कश्ती किसी मौज पर, हम भी उसकी रवानी के हो जाएँ क्या ।
सोचते हैं कि हम अपने हालात से, कब तलक यूँ ही तकरार करते रहें,
हँसके सह जाएँ क्या वक़्त का हर सितम, वक़्त की मेहरबानी के हो जाएँ क्या ।
ज़िन्दगी वो जो ख़्वाबों-ख़्यालों में है, वो तो शायद मयस्सर न होगी कभी,
ये जो लिक्खी हुई इन लकीरों में है, अब इसी ज़िन्दगानी के हो जाएँ क्या ।
हमने ख़ुद के मआनी निकाले वही, जो समझती रही है ये दुनिया हमें,
आईने में मआनी मगर और हैं, आईने के मआनी के हो जाएँ क्या ।
हमने सारे समुन्दर तो सर कर लिए, उनके सारे ख़ज़ाने भी हाथ आ चुके,
अब ज़रा अपने अन्दर का रुख़ करके हम, दूर तक गहरे पानी के हो जाएँ क्या ।