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मोड़ / मल्लिका अमर शेख़ / सुनीता डागा
Kavita Kosh से
सारा काम निपटाकर तैयार बैठी हूँ
फिर से जन्म लेने की आ गई है घड़ी
तिराहे पर यूँ राह देखना
बस, आता ही होगा जीवन सज-धज कर
सामने से आती हुई
बिना पहचान दिखाए ही निकल गई
क्या वह बहार थी ?
फिर, भला, उसका चेहरा
क्यूँ इतना मुरझाया हुआ था ?
अब आता ही होगा मोड़ पर से जीवन
जगह मिल जाएगी न आसानी से ?
दौड़ते-हाँफते तेज़ी से निकल गए सामने से
ये सारे स्वप्न किसके थे ?
और यह बारिश लगातार मुझे
क्यूँ कह रही है चलने को
जब कि कोई भी समन्दर
नहीं बनता है मेरा प्रियतम !
मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा