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मोती-1 / नज़ीर अकबराबादी

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रहे हैं अब तो पास उस शोख़ के शामो सहर मोती।
ज़बीं पर मोती और बेसर में मोती मांग पर मोती॥
इधर जुगनू, उधर कुछ बालियों में जलवागर<ref>शोभायमान</ref> मोती।
भरे हैं उस परी में अब तो यारो सर बसर मोती॥
गले में कान में नथ में जिधर देखो उधर मोती॥

कोई उस चांद से माथे के टीके में उछलता है।
कोई बुन्दों से मिलकर कान की नर्मों में मिलता है॥
लिपट कर धुगदुगी में कोई सीने पर मचलता है।
कोई झुमकों में झूले हैं कोई बाली में हिलता है॥
यह कुछ लज़्ज़त<ref>आनन्द, स्वाद</ref> है जब अपना छिदावे है जिगर मोती॥

कभी वह नाज़ में हंसकर जो कुछ बातें बनाती है।
तो एक एक बात में मोती को पानी में बहाती है॥
अदाओ नाज में चंचल अ़जब अ़ालम दिखाती है।
वह सुमरन मोतियों की उंगलियों में जब फिराती है॥
तो सदके उसके होते हैं पड़े हर पोर पर मोती॥

ग़लत है उस लबे रंगी<ref>सुरंग होंठ</ref> को बर्गे गुल<ref>गुलाब की पंखुड़ी</ref> से क्या निस्बत<ref>सम्बन्ध</ref>।
कि जिनकी है अक़ीक़ और पन्ने और याकू़त को हसरत<ref>अभिलाषा, लालसा</ref>॥
उदाहट कुछ मिसी की, और कुछ उस पर पान की रंगत।
वह हंसती है तौ खिलता है जवाहर ख़ानऐ कु़दरत<ref>प्रकृति का रत्नागार</ref>॥
इधर लाल और उधर नीलम, इधर मरजां<ref>मूँगा</ref> उधर मोती॥

कभी जो बाल बाल अपने में वह मोती पिरोती है।
नज़ाकत<ref>कोमलता</ref> से अर्क़ की बूंद भी मुखड़े को धोती है॥
बदन भी मोती, सर ता पांव से पहने भी मोती है।
सरापा मोतियों का फिर तो एक गुच्छा वह होती है॥
कि कुछ वह खु़श्क मोती, कुछ पसीने के बह तर मोती॥

गले में उसके जिस दम मोतियों के हार होते हैं।
चमन के गुल सब उसके वस्फ़ में मोती पिरोते हैं॥
न तनहा रश्क से क़तराते शबनम<ref>ओस की बूंदें</ref> दिल में रोते हैं।
फ़लक पर देख कर तारे भी अपना होश खोते हैं॥
पहन कर जिस घड़ी बैठे हैं वह रश्के क़मर मोती॥

वह जेवर मोतियों का वाह, और कुछ तन वह मोती सा।
फिर उस पर मोतिया के हार, बाजू बंद और गजरा॥
सरापा जे़बो ज़ीनत में वह अ़ालम देख कर उसका।
जो कहता हूं अरे ज़ालिम, टुक अपना नाम तो बतला॥
तो हंसकर मुझसे यूं कहती है वह जादू नज़र ‘मोती’॥

कड़े पाजे़ब, तोड़े जिस घड़ी आपस में लड़ते हैं।
तो हर झनकार में किस-किस तरह बाहम<ref>परस्पर</ref> झगड़ते हैं॥
किसी दिल से बिगड़ते हैं, किसी के जी पे अड़ते हैं।
कड़े सोने के क्या मोती भी उसके पांव पड़ते हैं॥
अगर बावर नहीं देखो हैं उसकी कफ़्श<ref>पादुका, जूता</ref> पर मोती॥

ख़फ़ा हो इन दिनों कुछ रूठ बैठी है जो हम से वह।
तो उसके ग़म में जो हम पर गुजरता है सो मत पूछो॥
चले आते हैं आंसू, दिल पड़ा है हिज्र<ref>विरह</ref> में ग़श हो।
वह दरिया मोतियों का हम से रूठा हो तो फिर यारो॥
भला क्यूंकर न बरसावे हमारी चश्मेतर<ref>सजल नयन</ref> मोती॥

शफ़क<ref>शाम की लालिमा</ref> इत्तिफ़ाक़न<ref>अकस्मात्</ref> जैसे सूरज डूब कर निकले।
व या अब्रे गुलाबी में कहीं बिजली चमक जावे॥
बयां हो किस तरह से, आह उस आलम को क्या कहिये।
तबस्सुम<ref>मुस्कान</ref> की झलक में यूं झमक जाते हैं दांत उसके॥
किसी के यक बयक जिस तौर जाते हैं बिखर मोती॥

हमें क्यूंकर परीज़ादों से बोसों के न हों लहने।
जड़ाऊ मोतियों के इस सग़जल पर बारिये गहने॥
सखु़न की कुछ जो उसके दिल में है उल्फ़त लगी रहने।
”नज़ीर“ इस रेख़्ता को सुन वह हंस कर यूं लगी कहने॥
अगर होते तो मैं देती तुम्हें एक थाल भर मोती॥

शब्दार्थ
<references/>