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मोमबत्ती की रोशनी में कविता-पाठ / शिरीष कुमार मौर्य

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हंस में प्रकाशित

वीरेन दा के साथ

बहुत काली थी रात

हवाएँ बहुत तेज़

बहुत कम चीजें थीं हमारे पास

रौशनी बहुत थोड़ी-सी

थोड़ी-सी कविताएँ

और होश

उनसे भी थोड़ा

हम किसी चक्रवात में फँसकर

लौटे थे

देख आए थे

अपना टूटता-बिखरता जहान

हमारी आवाज़ में

कँपकँपी थी

हमारे हाथों में

और हमारे पूरे वजूद में

हम दे सकते थे

एक-दूसरे को थोड़ा-सा दिलासा

थपथपा सकते थे

एक-दूसरे की काँपती-थरथराती देह

पकड़ सकते थे

एक-दूसरे का हाथ

हम बहुत कायर थे

वीरेन दा

उस एक पल

और बहुत बहादुर भी

मैं थोड़ा जवान था

तुम थोड़े बूढ़े

हमारी काली रात में

गड्ड-मड़ड हो गयी थी

आलोक धन्वा की

सफेद रात

वो पागल कवि

लाजवाब

गड्ड-मड्ड हो गया था

थोड़ा तुममें

थोड़ा मुझमें

अक्सर ही आती है यह रात

हमारे जीवन में

पर हम साथ नहीं होते

या फिर होते हैं

किसी दूसरे के साथ

सचमुच

क्षुद्रताओं से नहीं बनता जीवन

और न ही वह बनता है

महानताओं से

पर कभी-कभी

क्षुद्रताओं से बनती है महानता

और महानताओं से

कोई क्षुद्रता! -2003-