भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मोरपंख / स्वरांगी साने

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक घने जंगल में
वो चली जा रही थी अकेले
जंगल और घना होता जाता
और उसकी यात्रा और एकाकी

वो न कोई राजकुमारी थी
न ही परी
की कोई उसे खोजते हुए आ जाता

इतने घने जंगल में घिर गई थी
कि उस तक कोई किरण भी नहीं पहुच रही थी

अचानक किसी दिन
उसके हाथ लगा इक मोरपंख
घने अन्धेरे में उसने देखा
मोरपंख के सातों रंगों को
छुआ उसके स्पर्श को

अब घने अन्धेरे में
वे दोनों थे
एक वो और दूसरा मोरपंख
लेकिन अब उसे
अन्धेरा बुरा नहीं लगता था
मोरपंखों के रंगों में वो खो गई थी
उसके दिन भी मोरपंखी हो गए थे
और
स्याह रात भी सतरंगी

दिन बीतते गए
दिनों को बीतना ही था
मोरपंख उड़ने लगा हवा के साथ
अब वो आगे-आगे
ये पीछे-पीछे
लेकिन लड़की आल्हादित थी
हर बार वो उसे पकड़ती
हर बार वो छूटता

था घना जंगल
थे सैकड़ों झाड़-झंखाड़
मोरपंख उड़ाता चला जाता

हवा चली बहुत तेज़
तो आसमान से बातें करने लगा
अब अन्धेरा था
जो डरता कचोटता था
और वो थी निपट अकेली

मोरपंख
इन्द्रधनुष बन गया था
छा गया था आसमान पर
वो रह गई थी ज़मीन पर
वैसी ही अकेली