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मोरेंग में... / प्रताप सहगल

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अंधेरे को चीरती
कोई भी चीख
उजाले में
खोलती है आंखें
आंखों में भरने लगते हैं स्वप्न।

नवजात चीख
बचपन में बदलती है
और बचपन सपनों में

एक बचपन मेरा था
बचपन के सपने थे
एक सपना बड़ा होने लगा
बंगला और कार की शक्ल
अख्तियार करने लगा।

रेतीले मैदानों से
खुम्भी तोड़ता
सिंघाड़ों की बेलों से
सिंघाड़े चुराता
बचपन
कहीं किशोर देहरी पर खड़ा हो गया
और सपनों की आकृतियां बदलने लगीं।
लाल-गुलाबी सपने
झरने लगे आंखों से
और जेबों में आग भरने लगी
बचपन में सुने
आज़ाद हिन्द फौज के किस्से
बारूद बन
शिराओं में भरने लगे।

इन सब किस्सों और सपनों
के बीच से उभरती थी
एक अग्निमय आकृति
आकृति के चारों ओर तूफान
और हवा में तना एक हाथ
सीधा हमले के लिए तैयार
अपने होने का एहसास जगाता।

सपनों की दुनिया
कुछ कही, कुछ अनकही दुनिया
गुलाबों और बागों के सपने डायनों और भूतों के सपने
कुएं और पाताल के सपने
पानी और आग के सपने
और इन सबके बीच
जंग और बारूद के सपने

अपना होने का एक बड़ा सपना
मिला था नेताजी से
और सपना था मेरी आंखों में
उस मिट्टी का
जहां नेताजी ने जय हिन्द कहकर
हमारा सिर ऊंचा किया था
और आज
बरसों बाद
उसी मोरेंग की भूमि पर
खड़ा

ठीक नेताजी की प्रतिमा के सामने
कर रहा हूं महसूस
अपने अन्दर जलती आग
रोम-रोम से निकलने लगता है इस्पात
आंखें दोनाली बन्दूक बन गयी हैं
हाथ अनायास उठता है
मस्तक के किनारे को छूता है
और एक बड़ा शोर उठता है
मथता हुआ पूरे तन को
जयहिन्द, जयहिन्द, जयहिन्द।

सपना सच होता है क्या?
हां, सच होता है सपना कभी-कभी
मेरा सपना सच हुआ है
मैं खड़ा हूं आज पहाड़ियों से घिरे मोरेंग में
जहां नेताजी ने पहली बार
राष्ट्र-ध्वज गड़ा दिया था
अस्मिता से मण्डित
एक शिला-सा।

तुम्हारा सपना सच हुआ?

मैं सुभाष को कहीं अपने आसपास
महसूस कर रहा हूं
सुन रहा हूं
सिर्फ एक आवाज़
दिल्ली चलो, दिल्ली चलो, दिल्ली चलो
एक आवाज़ बदलती है लाखों आवाज़ों में
दिल्ली चलो, दिल्ली चलो, दिल्ली चलो
फूटता है बुदबुदाता स्वर मेरे
कांपते होंठों से
हां
दिल्ली चलो, दिल्ली चलो, दिल्ली चलो
दिल्ली से ही आया हूं
दिल्ली ने ही मुझे सपने दिए
दिल्ली ने ही मेरे सपनों को तोड़ा
दिल्ली ने मुझे बड़ा किया
साथ ही गले में लटका दिए
शर्म के मनके

उन मनकों की माला गले में पहन
घूमता हूं सारे देश में
शर्मसार हूं सुभाष।
तेरे सामने बेहद शर्मसार हूं
कि दिल्ली के वारिस
चौहद्दियों में बंद हैं
बन्द हैं हम छोटे-छोटे सड़े तालाबों में
गन्दी मछलियों की तरह
बन्द हैं।

नहीं है आज मेरे सामने कोई स्वप्न
मेरी आंखों में
सिर्फ रिक्तता है
जलन है
और सोचता हूं
मैं अपने बच्चों को
कौन-सा सपना दूं

1985