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मोरे मन हरि-दरसन को चाव / स्वामी सनातनदेव
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मोरे मन हरि दरसन को चाव।
जब सों सुनी स्याम की सुखमा पुनि-पुनि होत उम्हाव॥
कहा करांे कैसे मिलि हैं हरि, कीजै कहा उपाव।
लागी ललक न पलक लगत सखि! लखूँ दरस को दाँव॥1॥
हरि के हाथ हियो यह हार्यौ, बनै न बनै बनाव।
तकूँ न दूजी ओर भले ही प्रान रहें वा जाय॥2॥
और रूप न सुहात सखी री! नयनन पर्यौ सुभाव।
इनकी निज निधि हैं नँदनन्दन, भूले भाव-कुभाव॥3॥
जैसे हैं, हैं तो अपने ही, उनसों कहा दुराव।
जानत हैं जिय की वे सब कछु, कबहुँ देहिंगे दाँव॥4॥
दरस-दान दैहैं मनमोहन, हुइ है अधिक उम्हाव।
पुनि-पुनि दरस-परस करि-करि हिय बढ़िहै प्रीति प्रभाव॥5॥