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मोर में ही देखा आज निर्मल प्रकाश में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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मोर में ही देखा आज निर्मल प्रकाश में
निखिल का शान्ति अभिषेक,
नतमस्तक हो वृक्षों ने धरणी को किया नमस्कार।
जो शान्ति विश्व के मर्म में है ध्रुव प्रतिष्ठित
उसने की है रक्षा उनकी बार-बार
युग-युगान्तरों के आघात संघात में।
विक्षुब्ध इस मर्त्यभूमि में
सूचित किया है अपना आविर्भाव
दिवस के आरम्भ और शेष में।
उसी के पत्र तो पाये है कवि ने, मांगलिक।
वही यदि अमान्य करे बनकर व्यंग वाहक
विकृति के सभासद् रूप में
चिर नैराश्य का दूत,
टूटे हुए यन्त्र के सुर हीन झंकार मंे
व्यंग करे इस विश्व के शाश्वत सत्य को
तो उसकी क्या है आवश्यकता?
खेतों में घुसकर झाड़ काँटों का
करता अपमान क्यों मानव की क्षुधा का?
रूग्न यदि कहता रहे रोग को चरम सत्य,
उसकी उस स्पर्घा को समझूंगा लज्जा ही-
उससे तो बोले बिना
अच्छा है आत्महत्या करना ही।
मनुष्य का कवित्व ही अन्त में
होगा भाजन कलंक का
चलकर असंस्कृत चाहे जिस पथ पर।
करेगी क्या प्रतिवाद भला
स्वयं सुन्दर मुखश्री का
निर्लज्ज नकल ‘नकली चेहरे’ की?

‘उदयन’
प्रभात: 26 नवम्बर