भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मोर / दीनदयाल शर्मा
Kavita Kosh से
आसमान में बादल छाए
गड़-गड़-गड़-गड़ करते शोर
अपने पंखों को फैलाए
घूम-घूम कर नाचे मोर ।
सजी है सुन्दर कलंगी सिर पर
आँखें कजरारी चित्तचोर
रिमझिम-रिमझिम बरखा बरसे
सबके मन को भाता मोर ।
पँखों में रंगीला चँदा
पिकोक पिको बोले पुरज़ोर
बरखा जब हो जाए बन्द तो
नाचना बन्द कर देता मोर ।।