भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मोहन! कैसी मोहिनि डारी / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
राग भैरव, तीन ताल 29.6.1974
मोहन कैसी मोहनि डारी।
मोहनमयी भई जगती सब जब नयनन वह कान्ति निहारी॥
कान परी बानी रस-सानी, गूँज रही सो हृदय मँझारी।
नयननसों निकसत नहि पलहूँ मोहन की मधु-मूरति प्यारी॥1॥
प्रानन हूँ को भान न सजनी! सोहूँ मनहुँ भयो बनवारी।
रोम-रोम में ररकत पल-पल प्रीतम की चितवन अनियारी॥2॥
मुसकनि ने मोह्यौ मन ऐसो मनहुँ<ref>मानों</ref> मनहुँ<ref>मन भी</ref> मुसकत अनिवारी।
प्रिय की प्रीति नीति भइ हिय की, नीति-भीति अब सबहि बिसारी॥3॥
कहा कहांे री आली! हिय की, मनहुँ वहाँ पैठे गिरिधारी।
वह बंकिम छबि ऐसी अटकी काढ़े हूँ नहि कढ़त करारी॥4॥
जान परत स्यामहिको तन-मन, कन-कन मनहुँ भयो बनवारी।
अब मैं कान्ह भई री सजनी! कै कान्ह ही भये व्रज-नारी॥5॥
शब्दार्थ
<references/>