भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मोहन, मानि मनायौ मेरौ / सूरदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग नट


मोहन, मानि मनायौ मेरौ ।
हौं बलिहारी नंद-नँदन की, नैकु इतै हँसि हेरौ ॥
कारौ कहि-कहि तोहि खिझावत, बरज त खरौ अनेरौ ।
इंद्रनील मनि तैं तन सुंदर, कहा कहै बल चेरौ ॥
न्यारौ जूथ हाँकि लै अपनौ, न्यारी गाइ निबेरौ ।
मेरौ सुत सरदार सबनि कौ, बहुते कान्ह बड़ेरौ ॥
बन में जाइ करो कौतूहल, यह अपनौ है खेरौ ।
सूरदास द्वारैं गावत है, बिमल-बिमल जस तेरौ ॥

भावार्थ :-- (माता कहती हैं) `मोहन! मेरा मान मनाया (बहुत दुलारा) लाल है । मैं इस नन्द-नन्दन की बलिहारी जाती हूँ, लाल! तनिक हँसकर इधर तो देखो । काला कह-कहकर दाऊ तुम्हें चिढ़ाता है ? तुम्हें खेलने से रोकता? वह तो सचमुच बड़ा ऊधमी है, तुम्हारा शरीर तो इन्द्र-नीलमणि से भी सुन्दर है; भला, तुम्हारा सेवक दाऊ तुम्हें क्या कहेगा । अपनी गायों को छाँटकर अलग कर लो, वह अपनी गायों के झुण्ड अलग हाँक ले? मेरा पुत्र तो सबका सरदार है, मेरा कन्हाई बहुत बड़ा है; तुम वन में जाकर क्रीड़ा करो, यह तो अपना गाँव है (यहाँ तुम्हें कोई कुछ नहीं कह सकता) । सूरदास जी कहते हैं- प्रभो! मैं भी द्वार पर खड़ा आपका अत्यन्त निर्मल यश गा रहा हूँ ।