मोहन एक बार फिर आओ! / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
मोहन! क्या दुर्दशा देश की देख नहीं पाते हो?
भारत की सुध लेने कैसे आप नहीं आते हो?
जब-जब होती हानि धर्म की लगता है अघ छाने।
तब-तब मैं आता भूतल पर जग के पाप नशाने।।
कहा पार्थ से था, गीता में वर्णित है ये वाणी।
भूल गए क्या उन वचनों को पूछ रहा हर प्राणी।।
द्वापर युग में कंस एक था निर्मम अत्याचारी।
इस युग में है कंस अनेकों धूम मचाते भारी।।
एक द्रौपदी को नंगी होते लख दौड़े आए।
की जाती निर्वस्त्र आज हैं अनगिन द्रुपद सुताएँ।
गृहयुद्धों का जाल बिछाते कितने शकुनी मामा।
बोझ ग़रीबी का ढोते हैं लाखों भक्त सुदामा।।
तब तुमने वसुदेव-देवकी के संकट थे टाले।
अब कितने ही नर-नारी हैं पड़े दुखों के पाले।।
था तुमने जिन बाल सखाओं को नवनीत खिलाया।
कठिन भूख से बनी आज कंकाल उन्हीं की काया।।
कालीदह में नाग एक था, नाथ जिसे तुम लाए।
छोड़ रहे विष अब कितने ही विषधर फन फैलाए।।
यमुना के जिस तट पर तुमने मुरली मधुर बजाई।
बिना तुम्हारे उस तट पर है आज उदासी छाई।।
गोपालक बन जिन गायों की गरिमा तुमने गाई।
काट रहे बूचड़खानों में उनको आज कसाई।।
सरिता बनकर बही निरंतर जहाँ दूध की धारा।
आज रक्तरंजित लगता है बृजमंडल वह सारा।।
जीवन भर तुमने सबको समता का पाठ पढाया।
वंशी के शुचि सरस स्वरों में राग प्रेम का गाया।।
आज उसी वसुधा पर देखा घोर विषमता फैली।
कहीं भूख का नाच, कहीं पर है कुबेर की थैली।।
संग सखाओं के तुम जिनकी, थे छाया में सोते।
आज वही तरू-पल्लव करके याद तुम्हारी रोते।।
जन्मदिवस पर आज तुम्हारे, हे घट-घट के वासी।
आवाहन करते हैं सारे प्यारे भारतवासी।।
शोकग्रस्त सारा समाज है, एक बार फिर आओ।
दुख की इस काली रजनी को राका तुम कर जाओ।।