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मोहिं सखि! ऐसो समुझि पड़ो / स्वामी सनातनदेव

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राग सारंग, तीन ताल 19.6.1974

मोहिं सखि! ऐसो समुझि पर्यौ।
एकहि तत्त्व स्वरस रसिवेकों जुगल-स्वरूप धर्यौ॥
विषम विषय विषसों जीवन को जीवन सतत जर्यो।
ताकी तपन समन करिवेकों रस यह स्वाँग धर्यौ॥1॥
रस ही राधा रस ही माधव, रसमय खेल रच््यौ।
या रसने रसिकन के मन को भव-रुज<ref>संसार-रोग</ref> सकल हर्यौ॥2॥
सुचि सिंगार-सार मोहन-मन राधा-भाव भर्यौ।
महाभाव-मूरति राधा हूँ सुचि-सिंगार सर्यौ<ref>अनुसरण किया</ref>॥3॥
दोऊ रसिक दोउ रस सजनी! दोउ रस-रंग<ref>रस-क्रीडा</ref> रच्यौ।
या रँग में जो रँगे रसिकजन तिनहिं न और जँच्यौ॥4॥
या विधि सबहि कुरस तजि जिन के हिय यह सुरस बस्यौ।
वे रस-रूप भये जीवित ही, तिनहिं न काल कस्यौ<ref>पीड़ित किया</ref>॥5॥

शब्दार्थ
<references/>