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मोहिं सुन्दर स्याम बुलावत है री! / स्वामी सनातनदेव
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राग विलावल, तीन ताल 4.8.1974
मोहिं सुन्दर स्याम बुलावत है री!
भाव-भरी दूनी मुरली में मेरोहि नाम सुनावत है री!
गाय-गाय वह गीत अनूठो मोहीकों फुसलावत है री!
मैं तो बाकी प्रीति-भिखारिन, मेरो मन उमहावत है री!॥1॥
चलूँ चलूँ मैं देस पिया के-यही भाव उर आवत है री!
स्याम मिलें तो काम बनै सब, और न मोहिं सुहावत है री!॥2॥
अब लौं बिछुरि बहुत दुख पायो, अब यह कछु न सुहावत है री!
लोक जाय परलोक जाय, उर बात न दूजो आवत है री!॥3॥
रहूँ स्याम ही की ह्वै सजनी! यही मतो मोहि भावत है री!
दूजी बात न है कोउ उरमें, स्यामहि स्याम सुहावत है री!॥4॥
ये तन-मन सब भये स्याम के, अपनो पता न पावत है री!
भये स्याम आतम-परमातम ‘मैं’ को मोह न भावत है री!॥5॥