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मोहिनी बाघिनी / राजेन्द्र किशोर पण्डा / संविद कुमार दास

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उसी से अनुमति लेकर कब
घर के भीतर घर रचेगी गौरैया
सत्-सत् बोलेगी छिपकली, म्याऊँ बोलेगी शंखी
कब किसी कोने में विचित्र जाल फैलाकर बैठेगी
माया-मकड़ी :
उसे ठीक पता है।

उसी की इच्छा अनुसार
मथुरा की बन्दीशाला जैसा लगता है यह घर,
एक ही नज़र से फिर झनझनाकर खुल जाते हैं
साँकल, अर्गल, कुलुफ़
डिबिया, सन्दूक, खिड़की, द्वार और
हृदय के अलिन्द निलय ।

कवि की रचनाओं के गन्धमादन के
किसी ख़ाने में कहीं पर
बहुत दिनों से दबे हुए होने पर भी
कविता की कौन सी पंक्ति
विशल्यकरणी-गुण से हरी-ताज़ा-प्रखर है
उसे पता है ।

कौन से आँगन में, कौन सी कोठरी में
नीचे निर्दिष्ट कौन सा बिन्दु खोदने से
मिट्टी में से बाहर आएगी लांछिता जानकी
उसे ठीक पता है ।

प्रति मुहूर्त
उसके पैर ले जा रहे, मन घुमा रहे भुवनों को
घेर-गूँथ कर मण्डरा रहा है घर ।
घर उसे कई प्रकार का अवतार दे रहा है
पल प्रतिपल :
दर्पण के आगे शिशु, भोजन की थाली के पास अन्नपूर्णा
आस्थान में इष्ट देवी, पलंग पर स्वैरिणी ।
सबसे प्रखर माया-मकड़ी के जालों को
जमी कालिख की तरह
पोंछ लेती है उसकी फूल-झाड़ू ।

पल-पल लहू वो चूसती रहे, सही,
चली न जाए, रहे ।
कलम से फुरसत मिलने पर कभी-कभार
कलछी से उसकी
कौर-भर सब्जी मिलती रहे !!

मूल ओड़िया से अनुवाद : संविद कुमार दास