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मोह-तम-राशि नासिबे कौं स-हुलास चले / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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मोह-तम-राशि नासिबे कौं स-हुलास चले,
करिकै प्रकास पारि मति रति-मांति पर ।
कहै रतनाकर पै सुधि उधिरानी सबै,
धुरि परीं वीर जोग-जुगति संघाति पर ॥
चलत विषम ताती वात ब्रज-बारिनि की,
विपति महान परी ज्ञान-बरी बाती पर ।
लच्छ दुरे सकल बिलोकत अलच्छ रहे,
एक हाथ पाती एक हाथ दिये छाती पर ॥29॥