मोह-महत्ता / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
सुख को असुख, महा नीरस रसों को कर
कलित कुसुम को कुलिश कर पाता है;
देता है मलिन बक-माला को मराल-पद,
ललित रसाल को बबूल बतलाता है।
'हरिऔधा' विधाना-विधान है विबोधा जन,
सुधा-सम वसुधा का जीवन-विधाता है;
आप ही मनुज-कुल लाल को कराल काल
काला नाग मंजु मणि-माल को बनाता है।
बहु सुख-लालसा दिखाती है लहू से भरी,
लोभ लाखों लोगों का रुधिर पी ललाता है;
धूल में मिलाता है सुमेरु-सेसदन मद,
कोप-दव दिवि को दहन कर पाता है।
'हरिऔधा' पामरता-पूरित कलंक अंक
कामना-कसाइनी ललाट पै दिखाता है;
करके अमानवता फूला है समाता नहीं,
महि में न कौन पाप मानव कमाता है।
भव को प्रपंच मान भोग के न भोगी रहे,
श्रम बहु भाया भगवान के भजन का;
उचित विराग राग के न अनुरागी रहे,
झूठा ज्ञान रहा यजनीय के यजन का।
'हरिऔधा' अयथा विवेक के विवेकी रहे,
बोधा न हो पाया बुधा बोधाक वचन का;
गगन-सुमन-अनुमोदक सदैव रहे,
खाते रहे मोदक समोद हम मन का।
बड़े-बड़े लोचन के लालची बने ही रहे,
बिसर न पाई बात बेंदी बिकसी की है;
छीछी-छीछी कहैं लोग, छीछी की किसे है सुधा,
सुछवि न भूल पाई छाती उकसी की है।
'हरिऔधा' चूक-चूककर भी न चूक चुकी,
कसक सकी न कढ़ कंचुकी कसी की है;
उकस-उकस आज भी न कस में है मन,
अकस न छूट पाई काम अकसी की है।