भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मोॅन छै मरुवैलोॅ / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मोॅन छै मरुवैलोॅ
बोरसी मेँ आगिन छै जेना पझैलोॅ।
फुँकला सेँ फुर-फुर बस राखे उड़ै छै
उड़ी-उड़ी आँखी मेँ सबटा गड़ै छै
जिनगी रोॅ बोरसी मेँ सुख के जे चेला दौं
दुक्खे टा आँखी मेँ आवै छै उधियैलोॅ।

रखलेॅ जे छेलाँ सब रिस्ता-चपोती केॅ
कोरा आ धोआ, अछिन्नोॅ बिहोती केॅ
मसकी केॅ भाँगलै सब-अपनौती रिस्ता
जे कुच्छु बचलोॅ छै, सब्भे टा ओझरैलोॅ।

सब कुछ ओराय गेलै, बचलोॅ छै भाँगटे टा
सँघरी केॅ ऐलोॅ छै विपद भरी-नाँगटे टा,
मुट्ठी भर सुक्खोॅ लेॅ बेकल छी सद्दोखिन
बोरसी मेँ करसी लेॅ जिनगी छै कठुवैलोॅ।

-आज, पटना, 10 दिसम्बर, 1996