भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मोॅन ललचाबै छै / कस्तूरी झा ‘कोकिल’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कैहिया शादी करभौ भौजी, होली आबै छै।
तोहर वाला पलंग देखिकेॅ मोॅन ललचाबै छै।

वरतुहार केॅ कमी न लेकिन,
सपना मधुर सगाई।
साले साल लगन बीतै छै,
कब बजतै शहनाई?

बाबू जी के मुँह पर ताला, भैया मोल लगाबै छै,
कैहिया शादी करभौ भौजी, होली आबै छै।

तों साँझैं सें बन कमरा में
हम दरबाजे पेट कुनियाँ।
सुन-सुन लागे खटिया हमरॅ,
तोहर चकमक दुनियाँ।

कहौ कान में भैया जी सें फागुन मोॅन बहकाबै छै।
कैहिया शादी करभौ भौजी, होली आबै छै।

मोल तोल छोड़ी दॅ भौजी।
सुन्नर कनियाँ आनोॅ।
नैं तॅ चुपके शादी करभौं,
हमरोॅ बतिया मानोॅ।

लालच में पड़ला केॅ कारण माय-बाप पछताबै छै।
कैहिया शादी करभौ भौजी, होली आबै छै।

-08.02.07