राग रामकली
मो देखत जसुमति तेरैं ढोटा, अबहीं माटी खाई ।
यह सुनि कै रिस करि उठि धाई, बाहँ पकरि लै आई ॥
इक कर सौं भुज गहि गाढ़ैं करि, इक कर लीन्हीं साँटी ।
मारति हौं तोहि अबहिं कन्हैया, बेगि न उगिलै माटी ॥
ब्रज-लरिका सब तेरे आगैं, झूठी कहत बनाइ ।
मेरे कहैं नहीं तू मानति, दिखरावौं मुख बाइ ॥
अखिल ब्रह्मंड-खंड की महिमा, दिखराई मुख माँहि ।
सिंधु-सुमेर-नदी-बन-पर्वत चकित भई मन चाहि ॥
करतैं साँटि गिरत नहिं जानी, भुजा छाँड़ि अकुलानी ।
सूर कहै जसुमति मुख मूँदौ, बलि गई सारँगपानी ॥
भावार्थ :-- (किसी सखा ने कहा-) `यशोदाजी! तुम्हारे पुत्र ने मेरे देखते देखते अभी मिट्टी खायी है ।' यह सुनते ही माता क्रोध करके दौड़ पड़ी और बाँह पकड़कर श्याम को (घर) ले आयीं । एक हाथ से कसकर भुजा पकड़कर दूसरे हाथ में छड़ी ले ली (और डाँटकर बोलीं-) `कन्हैया! मैं अभी तुझे मारती हूँ, झटपट तू मिट्टी उगलता है या नहीं ?'(श्यामसुन्दर बोले-) `मैया ! व्रज के ये सभी बालक तेरे सम्मुख झूठी बात बनाकर कहते हैं । यदि तू मेरे कहने से नहीं मानती तो मुख खोलकर दिखला देता हूँ।' (यों कहकर) श्यामने मुखके भीतर ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का विस्तार दिखला दिया । समुद्र, सुमेरु आदि पर्वत,नदियाँ तथा वन (मुख में देखकर) माता अत्यधिक आश्चर्यमें पड़ गयी । हाथ से छड़ी कब गिर गयी, इसका उसे पता ही न लगा । श्याम का हाथ छोड़कर व्याकुल हो गयी । सूरदास जी कहते हैं कि यशोदा जी ने कहा--`मेरे शार्ङ्गपाणि ! अपना मुख बंद कर लो, मैं तुम पर बलिहारी जाती हूँ ।'