मौका परस्त / असंगघोष
वली दकनी की मज़ार में
छिपाए था मैं अपना सिर
शुतुरमुर्ग की मानिंद
आँखें बन्द किए,
आततायी तोड़ रहे थे
कोना दर कोना
मैं सोच रहा था
अपना सिर छुपा सुरक्षित हूँ
वली दकनी की मजार में।
मजार टूटती देख
भयभीत थे बच्चे
औरतें असहाय
जलते घर की
छत पर खड़ीं
बचाओ-बचाओ चिल्ला रही थीं
शायद उनका रोना-धोना सुन
दंगाइयों में से कोई रहमदिल
बचाने आ जाए! या
झकझोर दे उसे उसका जमीर
इसी आशा में
मैंने सिर और गहरे धँसाया
मलबे में
जैसे-जैसे ढहती जा रही थी
वली दकनी की मज़ार
मैं अपना सिर और अधिक गहरे
धँसाए जा रहा था
मलबे में
कहींदंगाई
मुझे न नोचने लगें
सईदा की माफिक,
अब तो निरीह औरतों बच्चों की
चीख ओ’ पुकार भी
सुनाई देना बंद हो चुकी थीं
शायद वे भी
घर के साथ ही
जल गए थे या
सूख चके थे उनके आँसू
और रोने के लिए
कुछ भी न बचा था
न हिचकी,
न आवाज,
न शब्द
दृष्टि भी पथरा गई थी,
मैदान के दूसरे छोर पर
ज़ार-ज़ार रोते
बूढ़े रहीम मियाँ
दोनों हाथ जोड़े अर्न्तमन से
जय श्रीराम बोलते
बार-बार माँग रहे थे
दंगाइयों से
अपनी जान की भीख
अब उनका गिड़गिड़ाना भी
बंद हो चुका था
जय श्रीराम कहना
काम न आया अब
राम भी
दंगाइयों की तरफदारी में था
भला रहीम मियाँ की
मदद क्यों करता
मैंने कुछ सुना नहीं
या मेरे कानों में मिट्टी भर आई थी
आँखें पहले ही से थीं बन्द
उन चश्मदीद गवाहों की तरह
जिनके कानों ने कुछ सुना ही नहीं
न ही उनकी आँखों ने
कुछ देखा,
और होस्टाईल हो गए
कचहरी में गवाही देते।
दंगाइयों को देखते ही
घिग्गी बँध आई थी मेरी
तब से आज तक
मैं चुप हूँ
मात्र चिल्ला रहे हैं
वे लोग
जो मूकदर्शक सहभागी थे
अपना सिर धूल में गड़ाए
मेरी ही तरह
जिन्दा औरतों-बच्चों को जलाने में
बूढ़े रहीम मियाँ की हत्या में,
वली दकनी की मज़ार तोड़
हुल्लड़िया हनुमान बिठा
मिटाई बाँटने में,
और मैं हूँ
कि अब भी चुप हूँ
क्या मेरा हित
चुप रहने में नहीं है?
शायद आप जानते हों!