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मौजे-हवा तो अबके अजब काम कर गई / शीन काफ़ निज़ाम

मौजे-हवा तो अबके अजब काम कर गई
उड़ते हुए परिंदों के पर भी कतर गई

निकले कभी न घर से मगर इसके बावजूद
अपनी तमाम उम्र सफर में निकल गई

आँखें कहीं, दिमाग कहीं, दस्तो-पा कहीं
रस्तों की भीड़-भाड़ में दुनिया बिखर गई

कुछ लोग धूप पीते हैं साहिल पे लेटकर
तूफ़ान तक अगर कभी इसकी खबर गई

देखा उन्हें तो देखने से जी नहीं भरा
और आँख है कि कितने ही ख़्वाबों से भर गई

मौजे-हवा ने चुपके से कानों में क्या कहा
कुछ तो है क्यूँ पहाड़ से नद्दी उतर गई

सूरज समझ सका न उसे उम्र भर 'निजाम'
तहरीर रेत पर जो हवा छोड़ कर गई.