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मौज-ए-ख़याल-ए-यार-ए-ग़म-ए-आसार आई है / सिद्दीक़ मुजीबी

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मौज-ए-ख़याल-ए-यार-ए-ग़म-ए-आसार आई है
क्यूँ चाहतों के बीच ये दीवार आई है

इक बूँद हाथ आई है पत्थर निचोड़ कर
आँखों से लब पे क़ुव्वत-ए-इज़हार आई है

हम दुश्मनों में अपनी ज़बाँ हार आए हैं
जब हाथ कट चुके हैं तो तल्वार आई है

क्यूँ आसमाँ ने दस्त-ए-तही फिर किया दराज़
क्यूँ धूप ज़ेर-ए-साया-ए-दीवार आई है

सूरज झूलस गया है हर इक शाख़-ए-जिस्म-ए-ओ-जाँ
दिन ढल गया तो घर में शब-ए-तार आई है

बे-सौत था ‘मुजीबी’ हर इक नग़्मा-ए-ख़याल
टूटा जो दिल तो साज़ की झंकार आई है