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मौज-ए-हवा से फूलों के चेहरे उतर गए / शीन काफ़ निज़ाम

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मौजे-हवा से फूलों के चेहरे उतर गए
गुल हो गए चिराग़ घरौंदे बिखर गए

पेड़ों को छोड़ कर जो उड़ उन का ज़िक्र क्या
पाले हुए भी ग़ैरों की छत पर उतर गए

यादों की रुत के आते ही सब हो गए हरे
हम तो समझ रहे थे सभी ज़ख्म भर गए

हम जा रहे हैं टूटते रिश्तों को जोड़ने
दीवारों-दर की फ़िक्र में कुछ लोग घर गए

चलते हुओं को राह में क्या याद आ गया
किस की तलब में काफ़िले वाले ठहर गए

जो हो सके तो अब के भी सागर को लौट आ
साहिल के सीप स्वाति की बूंदों से भर गए

इक एक से ये पूछते फिरते हैं अब 'निज़ाम'
वो ख़्वाब क्या हुए वो मनाज़िर किधर गए