मौत इक गीत रात गाती थी / फ़िराक़ गोरखपुरी
मौत इक गीत रात गाती थी
ज़िन्दगी झूम झूम जाती थी
कभी दीवाने रो भी पडते थे
कभी तेरी भी याद आती थी
किसके मातम में चांद तारों से
रात बज़्मे-अज़ा सजाती थी
रोते जाते थे तेरे हिज़्र नसीब
रात फ़ुरकत की ढलती जाती थी
खोई खोई सी रहती थी वो आंख
दिल का हर भेद पा भी जाती थी
ज़िक्र था रंग-ओ-बू का और दिल में
तेरी तस्वीर उतरती जाती थी
हुस्न में थी इन आंसूओं की चमक
ज़िन्दगी जिनमें मुस्कुराती थी
दर्द-ए-हस्ती चमक उठा जिसमें
वो हम अहले-वफ़ा की छाती थी
तेरे उन आंसूओं की याद आयी
ज़िन्दगी जिनमें मुस्कुराती थी
था सूकूते-फ़ज़ा तरन्नुम रेज़
बू-ए-गेसू-ए-यार गाती थी
गमे-जानां हो या गमें-दौरां
लौ सी कुछ दिल में झिलमिलाती थी
ज़िन्दगी को वफ़ा की राहों में
मौत खुद रोशनी दिखाती थी
बात क्या थी कि देखते ही तुझे
उल्फ़ते-ज़ीस्त भूल जाती थी
थे ना अफ़लाके-गोश बर-आवाज
बेखुदी दास्तां सुनाती थी
करवटें ले उफ़क पे जैसे सुबह
कोई दोसीज़ा रस-मसाती थी
ज़िन्दगी ज़िन्दगी को वक्ते-सफ़र
कारवां कारवां छुपाती थी
सामने तेरे जैसे कोई बात
याद आ आ के भूल जाती थी
वो तेरा गम हो या गमे-दुनिया
शमा सी दिल में झिलमिलाती थी
गम की वो दास्ताने-नीम-शबी
आसमानों की नीन्द आती थी
मौत भी गोश भर सदा थी फ़िराक
ज़िन्दगी कोई गीत गाती थी