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मौत के बाद / आशुतोष दुबे

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फिर सूरज निकलता है
हम फिर कौर तोड़ते हैं
काम पर निकलते हैं
धीरे-धीरे हँसते-मुस्कुराते हैं
बहाल होते जाते हैं
एक पल आसमान की ओर देखते हैं
सोचते हैं अब वह कहीं नहीं है
और फिर ये कि अब वह कहाँ होगा ?

यक़ीन और शक में डूबते- उतराते
हम उस कमरे की ओर धीरे-धीरे जाना बन्द कर देते हैं
जो हमारे मन में है
और जहाँ रहने वाला वहाँ अब नहीं रहता
पर ताला अभी भी उसी का लगा है.