मौत पर विजय पा ली? / महेश सन्तोषी
एक दिन हुआ यह कि आदमी ने मौत पर विजय पा ली।
उसने उसी वक्त सारे धर्म-ग्रन्थों को सड़क पर डाला और उनमें आग लगा दी।
इस क़दर फूला उसका अहम् का गुब्बारा जैसे आसमान हाथों में आ गया,
उसने सभी धर्मस्थलों की नींव तक जड़ से उखाड़कर सड़क पर डाल दी,
ईश्वर को भी उसने एकदम नकार दिया, बोला ‘उनसे अब क्या लेना-देना?
मैंने तो अब मौत पर भी विजय पा ली!’
लोगों का मरना बन्द हो गया, पर, घर-बाहर बूढ़ों ही बूढ़ों से भर गये,
हर जगह बूढ़े ही बूढ़े नज़र आने लगे,
कुछ वर्षों में दुनिया भर में बूढ़ों से जवान,
उनकी शक्ल देखकर ऊबने लगे, घबराने लगे,
तनाव टकराव में बदल गया, युद्ध होने के आसार भी सामने आने लगे।
मगर युद्ध से होगा क्या? उसने सोचा, एक भी वृद्ध मरेगा तो नहीं,
भले ही सारे बूढ़े एक भी जवान को नहीं मार सकें,
पर, सौ जवानों तक से एक भी बूढ़ा मरेगा तो नहीं।
इसलिए इंसान को फिर भगवान की याद आई, सोचा, उनकी शरण में ही जाए।
सारे जवान ईश्वर की ओर दौड़े, उनके चरण छुए, हाथ जोड़े,
‘हे ईश्वर! या तो हमें मार डालो या फिर इन बूढ़ों को दुनिया से बाहर निकालो’
ईश्वर मुस्कराए, बोले,
‘जब तुम मौत को जीत ही गये हो तो मुझसे क्या लेना-देना?
तुम्हीं इन बूढ़ों को पालो, पोसो, संभालो’
सब जवान एक स्वर में बाले, ‘यदि यह न कर सको तो
हे ईश्वर! हमें फिर से मौत दो, फिर से मार डालो!’