मौत बनकर दबोच ले न उलटकर मुझको / कुमार नयन

मौत बनकर दबोच ले न उलटकर मुझको
मैं हूँ कश्ती में ढूंढता है समंदर मुझको।

तुम ही इक राज़दां नहीं हो मिरे दिल मेरा
जानता है जहां ये तुमसे भी बेहतर मुझको।

नींद आंखों में मेरी शोर मचा देती है
काट खाता है मखमली मिरा बिस्तर मुझको।

अब न मरहम तलाशिये न दुआ ही कीजै
मैं हूँ ज़ख़्मे-ज़माना चाहिए नश्तर मुझको।

किसके आंसू हैं इतने सख़्त कि हर सू यारब
रोक लेते हैं बन के राह में पत्थर मुझको।

ये ज़माना मिरे गुनाह पे जब चुप रहता
मारना पड़ता है किवाड़ पे तब सर मुझको।

अब कहां कुछ भी मेरे पास है ग़ज़लों के सिवा
माँ क़सम कम नहीं ये भी है मयस्सर मुझको।

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