भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मौत रह-रह के छले है यारों / विजय किशोर मानव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौत रह-रह के छले है यरो
ये शहर रोज़ जले है यारो

रेत ही रेत नज़र की हद तक
फिर भी ये नाव चले है यारो

पेट की आग, जिस्म के कंधे
उम्र ज्यों बर्फ़ गले है यारो

न दम घुटे न चैन ही आए
ऐसा फंदा भी खले है यारो

फेंकता कोई, किसी के पासे
हर कोई हाथ मले है यारो