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मौत / सजीव सारथी
Kavita Kosh से
न जाने किस मिटटी के,
बने होते हैं ख्वाब ये,
बारहा गिरते हैं पलकों से
टूट टूट कर,
मगर मौत नही आती इन्हें।
कहीं से उम्मीद की
कोई हवा चलती है,
और धड़कने लगते हैं,
सांस लेने लगते हैं,
फिर एक बार,
मगर किसी रोज
यूं भी होता है,
कि मर जाता है कोई ख्वाब,
पलकों से गिर कर टूटता है,
चूर हो जाता है,
और उम्मीदों की हवा भी
जैसे बंद हो जाती है,
उस रोज,
जिंदगी भी सो जाती है,
मौत का कफ़न ओढ़ कर,
इस इंतज़ार में कि -
शायद फिर कोई ख्वाब आये,
इस नींद से जगाये ।